सिमटती हुई दुनिया

डा. सुनील दीपक, 24 जनवरी 2021

हर वर्ष यह दुनिया कुछ और सिमट जाती है। इस सिमटती दुनिया के अलादीन का चिराग हमारा मोबाईल फोन है, जिसमें बन्द जिन्न को केवल आपके आदेश की प्रतीक्षा है। मोबाईल व कम्पयूटर में रहने वाले जिन्न जी के कई नाम हैं - सीरी, गूगल नाओ, कोर्टाना, स्काईवी इत्यादि। आप इस जिन्न को आदेश दे सकते हैं जैसे कि "सीरी, लाईट जला दो" या "सीरी, हमें पद्मावत फ़िल्म का गाना सुनाओ"। आप उससे प्रश्न भी पूछ सकते हैं। इस मोबाईल में रेडियो है, संगीत है, घड़ी और एलार्म है, कैमरा है, नक्शे हैं, फ़िल्में हैं, वीडियो हैं, परिवार जनों व मित्रों के संदेश हैं, ईमेल है, देश विदेश के समाचार पत्र हैं, किताबें हैं - यानि हमारी आधी दुनिया इसी मोबाईल में बन्द है।

मोबाईल फ़ोन, इंटरनेट और हमारी सिमटती दुनिया

यहाँ इटली में कोई भारतीय रेडियो नहीं है। पहले जब इंटरनेट नहीं होता था तो मैं शोर्टवेव रेडियो पर लँडन से प्रसारित होने वाले सनराईज़ हिन्दी रेडियो को सुनने के लिए खोजने में घँटों लगा रहता था। रेडियो की सूई ज़रा सी भी हिल जाती तो दोबारा उस स्टेशन खोजने में परेशानी होती थी। अब मोबाईल में रेडियो सुनने के एप्प हैं, जब मन में आये सनराईज़ रेडियो या अन्य बहुत से देशों से प्रसारित होने वाले रेडियो को सुन सकते हैं।

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वैसे तो मुझे भारतीय शास्त्रीय संगीत से ले कर पश्चिमी जेज़ और इतालवी पॉप तक सभी तरह का संगीत अच्छा लगता है, लेकिन सुबह जब व्यायाम करता हूँ, उस समय मुझे हिन्दी फ़िल्मी संगीत सुनना सबसे अधिक अच्छा लगता है। सुबह मुँह अँधेरे उठ कर व्यायाम करने की मेरी पुरानी आदत है जिसकी जड़ें मेरे बचपन से जुड़ी हैं। जब मैं छोटा था तो कुछ वर्षों तक पापा हैदराबाद में रहते थे और बाकी का परिवार पुरानी दिल्ली के शीदीपुरे में नाना नानी के साथ रहता था। एक बड़े घर में आँगन के एक ओर नानी नानी का परिवार था, और दूसरी ओर के हिस्से में जहाँ कभी उस पुराने घर का जनाना होता था, वहाँ हम लोग रहते थे।

मेरे एक मामा तब फिज़िकल एजूकेशन की पढ़ायी कर रहे थे। वह भारत माता की देशभक्ति के गीत गाते और हर दिन सुबह व्यायाम करते थे। उनके साथ साथ जैसे वर्जिश वह करते, मैं भी करता था। कुछ वर्षों के बाद पापा दिल्ली आ गये और हम लोग नाना नानी का वह घर छोड़ कर दूसरे घर में आ गये, लेकिन वह बचपन का व्यायाम करना मैं नहीं भूला। पिछले वर्ष वह मामा भी नहीं रहे। इतने दशकों में उस व्यायाम दिनचर्या में कुछ बदलाव आये हैं विषेशकर पिछले कुछ वर्षों में, क्योंकि उम्र के साथ जोड़ों के दर्द की वजह से, झुकने, नीचे बैठने आदि कामों में शरीर में पहले जैसी लोच नहीं है। इसलिए इंटरनेट पर यूट्यूब के माध्यम से अपनी उम्र से मेल खाने वाले कुछ नयी तरह के व्यायाम सीखने की कोशिश करता रहता हूँ।

व्यायाम करते हुए कौन से रेडियो स्टेशन से संगीत सुना जाये यह सबसे बड़ा प्रश्न होता है। पंद्रह बीस वर्ष पहले जब इंटरनेट आया था तो बहुत से देशों के रेडियो स्टेशनों ने इंटरनेट के रेडियो चला दिये इसलिए हिन्दी फ़िल्मी संगीत सुनना हो तो आप बहुत से देशों से रेडियो सुन सकते हैं। केनेडा, अमरीका, त्रिनीदाद, ग्याना, मॉरिशयस, फ़िज़ी, ईंग्लैंड, फ्राँस, हॉलैंड आदि बहुत से देश हैं जहाँ पर हिन्दी फ़िल्मी संगीत के प्रेमी हैं। भारत में केवल सरकारी आकाशवाणी को इंटरनेट से रेडियो प्रसारण की अनुमति है, यानि आप विविध भारती सुन सकते हैं, बाकी सभी प्राईवेट रेडियो केवल रिकार्ड किया हुआ संगीत या पॉडकास्ट सुना सकते हैं। मुझे रिकार्ड किया हुआ कार्यक्रम सुनने से लाईव कार्यक्रम सुनना अधिक अच्छा लगता है इसलिए अक्सर फ़िज़ी का रेडियो सुनता हूँ क्योंकि वहाँ पर हिन्दी के साथ साथ भोजपुरी और मैथिली जैसी भाषाएँ भी सुनने को मिलती हैं।

सोशल मीडिया और इंटरनेट के माध्यमों से दुनिया कैसे सिमट कर छोटी हो रही है, इसका एक अनुभव मुझे आज सुबह व्यायाम करते हुए हुआ। कल टिवटर पर कुछ लोगो ने दक्षिण भारत के किसी गाँव में हुई एक घटना के बारे में वीडियो लगाया था जिसमें कुछ लोगों ने एक बूढ़े हाथी पर जलता हुआ टायर फैंक कर उसे जलाया था। जहाँ तक हो सके मैं इस तरह के वीडियो नहीं देखता क्योंकि देखने के बाद मन से उन दर्दनाक छवियों को निकालना कठिन होता है, मन परेशान हो जाता है। लेकिन उस हाथी वाले वीडियो का प्रारम्भ का हिस्सा मैंने देखा था और देख कर बहुत द्रवित हुआ था कि मानव की क्रूरता की सीमा नहीं।

आज सुबह व्यायाम करते समय फ़िज़ी द्वीप से प्रसारित मिर्ची रेडियो सुन रहा था तो उन्होंने भी इस हाथी वाले वीडियो की चर्चा की। बूढ़े हाथी पर की गयी क्रूरता से बात शुरु हुई तो पड़ोसी की मुर्गी जो आपके आँगन में आ जाये उसे डँडा मार कर भगाना सही है या नहीं है, की बात होने लगी। और फ़िर वहाँ से घर के बड़े बूढ़ों की ठीक से देखभाल न करने की बातों तक भी पहुँची। यानि कल जो बात भारत के एक गाँव में हुई, उसे मैंने इटली में देखा, उस पर आज फ़िज़ी में भी बहस हुई तो दुनिया एक गाँव जैसी ही हो गयी।

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फिज़ी के मिर्ची रेडियो पर सभी बातें हिन्दी और भोजपुरी में होती हैं। दुनिया के दूसरे कोने में ग्याना के रेडियो पर भी सुन्दर साफ़ हिन्दी बोलते हैं। फिज़ी, ग्याना, मारिशयस के रहने वाले भारत से करीब सौ-एक सौ बीस साल पहले गये थे, लेकिन उन्होंने अपनी भाषा को बहुत सम्भाल कर रखा है। यह तीनों देश भी अंग्रेज़ी भाषी हैं, लेकिन वहाँ पर रहने वाले भारतीय मूल के लोगों ने अपनी भारतीय भाषाओं को नहीं भुलाया।

ईंग्लैंड में रहने वालों की स्थिति उससे विपरीत है। लँडन के सनराईज़ रेडियो वाले अधिकाँश अंग्रेज़ी में बोलते हैं, बिल्कुल अंग्रेज़ी तरीके से। यही बात वहाँ रहने वाले बहुत से भारतीय परिवारों में भी दिखती है, जब परिवार के लोग आपस में भी अंग्रेज़ी में ही बात करते हैं।

लेकिन जो बात ईंग्लैंड में हो रही है, उसके लक्षण भारत में भी दिखते हैं। उत्तर भारत के बहुत से एफएम रेडियो भी संगीत तो हिन्दी फ़िल्मों का सुनाते हैं लेकिन अक्सर बातें अंग्रेजी मिली हुई हिन्दी में करते हैं। जिन हिन्दी फ़िल्मों की गीत देश विदेश में दूर दूर तक सुनते हैं, उनमें काम करने वाले लोग अक्सर केवल अंग्रेज़ी में ही बातें करते दिखते हैं। बहुत सी हिन्दी की अखबारों में भी समाचार अंग्रेज़ी से मिली जुली हिन्दी में लिखे होते हैं।

मोबाईल फ़ोन, इंटरनेट और हमारी सिमटती दुनिया

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कोविड१९ की महामारी से सारा जीवन कैसे बदल गया है। हमारे छोटे से शहर में अगर आप को भारतीय मसाले, दालें, आदि चाहियें तो उसके लिए दो दुकाने हैं, एक दुकान का मालिक मोरोक्को का है, दूसरी दुकान का पाकिस्तान वाला। मोकोक्को वाली दुकान में सब सामान नहीं मिलता तो मुझे पाकिस्तानी दुकान पर जाना पड़ता है, लेकिन उसका सभी सामान पाकिस्तान से आयातित होता है, किसी भारतीय कम्पनी का सामान वह नहीं रखता।

कहने को आप सोच सकते हैं कि भारतीय और पाकिस्तानी मसालों में क्या अंतर होगा, लेकिन मुझे बहुत से पाकिस्तानी मसाले अच्छे न हीं लगते क्योंकि उनका मिश्रण भिन्न होता है। जैसे कि पाकिस्तानी चाट मसाला, भारतीय चाट मसाले से एक दम अलग है। हमारी पाकिस्तानी दुकान में दक्षिण भारत का सामान जैसे इडली मिक्स, दोसा मिक्स आदि भी नहीं मिलते। शायद अन्य भारतीय ग्राहक यहाँ नहीं हैं, इसलिए ऐसा है।

कोविड १९ की महामारी से पहले, हम लोग खाने पीने के सामान की बड़ी वाली खरीदारी करने के लिए महीने-‍‍दो महीने में एक बार यहाँ से तीस किलोमीटर दूर विचेंज़ा शहर में जाते थे, जहाँ एक बड़ी एशियन सुपरमार्किट है जिसका मालिक बँगलादेश का है। वह यहाँ आने से पहले कई साल तक दिल्ली में रहा था, उसे हिन्दी बोलनी भी अच्छी आती है और उसके यहाँ भारत से आयातित बहुत सा सामान मिल जाता है। लेकिन अब कोविड की वजह से शहर से बाहर जाने पर पिछले कई महीनों से प्रतिबन्ध लगे हैं तो हम लोग भी पाकिस्तानी दालों और मसालों से ही काम चला रहे हैं।

अगर आप विदेश में रहते हैं तो मुझे लगता है कि यह सिमटी हुई दुनिया आप को अपने परिवेश से जुड़ने में रुकावट भी बन सकती है। मैं अपने खाली समय में यहाँ आये शरणार्थियों के साथ काम करने वाली एक संस्था के साथ वोलोन्टयर यानि स्वयंसेवक का काम करता हूँ। एशिया और अफ्रीका के विभिन्न देशों से आये शरणार्थियों को यहाँ रहने और काम करने के लिए इतालवी भाषा सीखना आवश्यक है जिसके बिना उन्हें काम नहीं मिलता। उनके लिए इतालवी भाषा सिखाने का विद्यालय भी है। अगर यह लोग चाहें तो यूट्यूब पर इतालवी भाषा सीखने के वीडियो भी देख सकते हैं, इतालवी टीवी पर यहाँ के समाचार व फ़िल्में देख सकते हैं ताकि भाषा जल्दी सीखें। लेकिन बहुत से शरणार्थी लोग यूट्यूब पर अपने देशों के संगीत, रेडियो सुनना, अपनी फ़िल्में और वीडियो देखना, या आपने परिवार व मित्रों से बात करने में ही सारा समय बिताते हैं।

यहाँ आने वाले शरणार्थियों में अभी तक कोई भारत से आने वाला नहीं मिला। जिन लोगों से बात करने के लिए मुझे बुलाया जाता है उनमें बहुत से लोग पाकिस्तान से आये हैं, कुछ अफगानिस्तान से और दो तीन लोग नेपाल से। जब यह लोग नये नये आते हैं, तब इन्हें यहाँ की भाषा नहीं आती, तो मुझे उनका अनुवादक बन कर उनसे बातचीत करने के लिए बुलाते हैं। चार-पाँच सालों तक यहाँ से वहाँ तक भटकते हुए यह लोग ईरान, लिबिया, तुर्की, बोस्निया जैसे देशों से हो कर मरते मराते बेचारे यहाँ पँहुचते हैं। उन सब लोगों को हिन्दी फ़िल्मों के गाने आते हैं, सभी को अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, सलमान खान, अक्षय कुमार जैसे अभिनेताओं की फ़िल्में अच्छी लगती हैं। नये देश में आये इन लोगों के मन में भय भी होता है कि उनका क्या होगा, कैसे होगा। जब शुरु में प्रतीक्षा कर रहे हों तो मैं अक्सर उनसे भारतीय फ़िल्मों और गानों की बातें करता हूँ, तो उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है।

पाकिस्तान वाले नये शरणार्थी लोगों को जब कहता हूँ कि मैं इंडिया से हूँ तो थोड़े से सकपका से जाते हैं। फ़िर जब जान पहचान हो जाती है तो हमारे बीच कुछ भरोसा भी बन जाता है। जो विवाद भारत और आसपास के देशों के बीच में हो रहे हैं, उनका प्रभाव यहाँ तक कुछ न कुछ तो पँहुचता है, विषेशकर जब यह लोग नये होते हैं। कुछ समय के बाद जब आपस में जान पहचान बन जाती है तो मित्रता हो जाती है।

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चालीस वर्ष पहले जब इटली में आया था तो अपने ठीक ठाक पँहुचने का समाचार माँ को टेलीग्राम से दिया था। तब घर टेलीफ़ोन करना होता था तो पोस्टआफ़िस जा कर कॉल बुक करनी पड़ती थी। कई बार टेलीफ़ोन मिलने में तीन चार घँटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी और जब कॉल मिलती थी तो बूथ में जा कर बार बार हैलो हैलो चिल्लाना पड़ता था, आधी बात सुनायी देती थी, आधी नहीं। अब उसके बारे में सोचो तो लगता है कि किसी पिछले जन्म की बात थी। आज कोई वाईफाई का कनेक्शन मिल जाये तो बिना कुछ पैसा खर्च किये, आप जब मन चाहे दूनिया में किसी से भी वीडियो कॉल कर लीजिये। यहाँ आने वाले सब शरणार्थियों को सरकार की ओर से रहने का घर, खाना, कपड़ा और मुफ्त वाईफाई मिलने का अधिकार है, इसलिए यह सब लोग अपने घरवालों से नियमित बात करते हैं।

लेकिन जब तक भाषा सीख कर कोई काम खोजने के लायक नहीं हो जाते, शरणार्थियों के पास पैसे नहीं होते कि घर भेज सकें। कुछ भी काम मिलने में एक-दो साल तो आसानी से लग जाते हैं। अक्सर उनके घर के लोग यह बात नहीं समझते और सोचते हैं कि बस उनका व्यक्ति यूरोप पँहुच गया उसके पास पैसे की कमी नहीं होगी। अक्सर इनके घर वाले इनसे पैसे भेजने का दबाव डालते रहते हैं। शरणार्थी बनने का रास्ता सरल नहीं है, लेकिन उन सब कठिनाओं के बारे में फ़िर कभी लिखूँगा।

अंत में

मुझे वेबरेडियो पर हिन्दी के रिकार्डिड कार्यक्रम सुनना अच्छा नहीं लगता, मैं चाहता हूँ कि जीते जागते लोगों की बातें सीधे सुनूँ। चूँकि भारत से विविध भारती को छोड़ कर यह संभव नहीं, इसलिए अन्य देशों के रेडियो के माध्यम से कभी फिज़ी के लोगों की बातें सुनता हूँ, कभी ग्याना और त्रिनिदाद की, तो कभी लँडन वालों की। लगता है कि दुनिया के विभिन्न कोनों में बिखरे, हम सब एक ही परिवार के लोग हैं। जब रात को सोने से पहले थोड़ी देर तक किसी को भोजपुरी मैथिली या हिन्दी में बात करते सुन लो, तो प्रवासी होना आसान हो जाता है।

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